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धनबाद कोयलांचल : सरकारी सिस्टम और जनप्रतिनिधि के बेरूखी का दर्द झेल रहा दो गांव, आज भी पुल बनने की आस में हैं ग्रामीण

नव. 27

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अमरेंद्र झा

धनबाद ( DHANBAD) : धनबाद कोयलांचल, जेहन में नाम आते ही कोयला खदानों की तस्वीरें आंखों में तैरनी लगती है. कितना धनी है यहां की धरती, कोई हिसाब नहीं. कोयले की काले धंधें की बात ही निराली है. ऐसा लगता है कि यहां हर कोई धनी होगा, विकास चरम पर होगा. लेकिन जब धरातल पर जाएंगे तो गरीबी और अव्यवस्था देख आपको विश्वास ही नहीं होगा कि आप धनबाद में हैं या और किसी क्षेत्र में.   यहां सिर्फ दो गांव कीकर रहे हैं, जहां आजादी के 78 साल बाद भी एक छोटा सा पुल नहीं बन पाया है. इसके लिए कौन जिम्मेवार है,जनप्रतिनिधि, जिला प्रशासन या राज्य सरकार? 

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आज़ादी के 78 साल बाद भी पुल नहीं

मामला धनबाद जिले का बाघमारा प्रखंड के बागड़ा पंचायत का है. बागड़ा–बारकी… कोयलांचल की धरती पर यह दो नाम सिर्फ गाँव नहीं, सत्तर-अस्सी साल पुराने जख्म हैं. सरकारें बदलीं, नेता बदले, भाषण बदले, वादे बदले. पर नहीं बदला तो सिर्फ इन गाँवों का दर्द. 

ये सिर्फ उपेक्षा नहीं, यह लोकतंत्र की वह शर्मनाक विफलता है जो किताबों में नहीं लिखी जाती. पर हर बरसात में कीचड़ बनकर रास्तों पर दिखाई देती है. हर बारिश में रास्ता डूब जाता है.

लोग गिरते हैं, बच्चे घायल होते हैं, बुजुर्ग पानी में फिसलते हैं, और ऊपर बैठे अफसरों की फाइलें सिर्फ ‘स्वीकृति के इंतज़ार’ में धूल फांकती रही हैं. यह कैसा विकास? कैसी संवेदनशीलता? और कैसा शासन?

 ग्रामीणों का आरोप  “वोट नहीं दिया इसलिए उपेक्षा हो रही है.” 

ग्रामीणों आरोप है कि “वोट नहीं मिला इसलिए उपेक्षा हो रही है.” यह दावा अगर सच है तो यह सिर्फ प्रशासनिक लापरवाही नहीं, यह लोकतंत्र पर सबसे करारा प्रहार है. क्या विकास अब वोट की कीमत पर बिकेगा? क्या बुनियादी अधिकार अब चुनावी गणित का हिस्सा बन चुका है.

  गाँव के लोग कहते हैं कि “इस बार पुल नहीं बना तो चुनाव में जनप्रतिनिधियों को जवाब देंगे.”यह सिर्फ नाराज़गी नहीं है, यह उस धैर्य का टूटना है जो दशकों से सिस्टम की बेरुख़ी सहता आ रहा था. आलम भी ऐसा कि स्कूली बच्चे रोज गिरते पड़ते आ-जा रहे हैं. गर्भवती महिलाओं एवं गंभीर मरीजों को अस्पताल तक ले जाना मुश्किल हो रहा है. यहाँ एंबुलेंस तो क्या, साइकिल के भी गुजरने पर परेशानी होती रही है. ज्ञात हो कि इस ग्रामीण क्षेत्र मे उपहास बनी सरकारी व्यवस्था और जनप्रतिनिधि की अकर्मण्यता का ही नतीजा माना जा रहा है फलस्वरूप ग्रामीण त्रस्त है.

 वोट की राजनीति लोगों के अधिकारों पर भारी पड़ रही

आखिर बागड़ा के विकास की फाईले किसने कैद की? क्यों हर गांव का दर्द फाइलों में खो जाता है? क्यों अधिकारी निरीक्षण के बाद भी कार्रवाई नहीं करते? क्यों विकास का दावा टीवी स्क्रीन पर दौड़ता है? जबकि दो गाँवों के बीच टूटी पुल चिरकाल से निर्माण की आस में  दम तोड़ रही है?

उल्लेखनीय यह भी कि राज्य में विकास के रफ्तार के दावे की चिल्ल-पों मची है तो वहीं दशकों से ग्रामीण पुल निर्माण की मांग पर आश लगायें बैठे है. ऐसे में राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था एवं विधायिका के समक्ष यक्ष प्रश्न है कि ग्रामीणों का आखिर क्या कुसूर है ? गाँव का यह दर्द पूरी व्यवस्था के समक्ष सवाल खड़ा कर दिया है.सवाल यह कि एक छोटी-सी पुलिया बनाने में 78 साल लग रहे है. क्या समाजिक चरित्र के इस दंश के बीच विकास की बात बेमानी नहीं तो और क्या है? बागड़ा–बारकी की यह दशा महज एक कहानी नहीं, यह उस भारत का आईना भी है,जहाँ आज भी वोट की राजनीति लोगों के अधिकारों पर भारी पड़ रही है.

 अंतिम सवाल सरकार से, जिसे सुनना ही होगा

क्या लोकतंत्र में एक गाँव की सुरक्षा भी वोट पर निर्भर करेगी? क्या बच्चों की जान जोखिम में डालकर भी सिस्टम अपनी नींद नहीं खोलेगा? क्या विकास सिर्फ भाषणों में चमकता रहेगा और सड़कें पानी में डूबती रहेंगी? जब तक इन सवालों का जवाब नहीं मिलता,  तब तक यह रिपोर्ट सरकार के दावों पर सबसे बड़ा अभियोग है.

 

 

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